सफलता के छ: चरणोँ मेँ स्वामी विवेकानन्द जी के अनमोल विचारोँ का संग्रह-
भाग्य-
- उठो, साहसी बनो, वीर्यवान होओ। सब उत्तरदायित्व अपने कन्धोँ पर लो। यह याद रखो कि तुम स्वयं अपनेँ भाग्य के निर्माता हो। तुम जो कुछ बल या सहायता चाहो, सब तुम्हारे ही भीतर विद्यमान है। अतएव इस ज्ञानरूप शक्ति के सहारे तुम बल प्राप्त करो और अपनेँ हाथोँ अपना भविष्य गढ़ डालो। (स्वामी विवेकानंद जी)
- स्वयं ही अपना उध्दार करो। भाई, दूसरा कोई तुम्हेँ मदद न पहूँचायेगा, क्योँकि तुम स्वयं ही अपने सबसे बड़े शत्रु हो और तुम स्वयं ही अपने सबसे बड़े मित्र हो। (स्वामी विवेकानंद जी)
- तुम स्वयं ही अपनेँ भाग्य के निर्माता हो। तुम अपनेँ ही कर्म से अच्छे और बुरे दोनोँ प्रकार के फल भोग रहे हो, तुम अपनेँ ही हाथोँ से अपनी आँखेँ मूँदकर कहते हो- अंधकार है। हाथ हटा लो- प्रकाश दीख पड़ेगा। तुम ज्योतिस्वरूप हो, तुम पहले से ही सिध्द हो। (स्वामी विवेकानंद जी)
- उठ खड़े हो और लड़ो। एक पग भी पीछे न रखो, यही भाव है….
जो भी आये, उससे लड़कर निपट लो। अंतरिक्ष से नक्षत्र भले ही हट जायेँ सारा संसार हमारे विरूध्द क्योँ न खड़ा हो जाये। मौत का अर्थ केवल वस्त्रोँ का परिवर्तन है। उससे क्या? अत: लड़ो! कायर होकर तुम कुछ भी लाभ नहीँ उठाते।… एक पग पीछे हटकर तुम किसी भी दुर्भाग्य को टाल नहीँ सकते। (स्वामी विवेकानंद जी)
शिक्षा..
- जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकेँ, मनुष्य बन सकेँ, चरित्र गठन कर सकेँ और विचारोँ का सामंजस्य कर सकेँ, वही वास्तविक शिक्षा कहलाने योग्य है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- जितने दिन जीना है, उतनेँ दिन सीखना है। पर यह एक बात अवश्य ध्यान मेँ रख लेने की है कि जो कुछ सीखना है, उसे अपने साँचे मेँ ढाल लेना है। अपने असल तत्व को सदा बचाकर फिर बाकी चीजेँ सीखनी होँगी! (स्वामी विवेकानंद जी)
- सारी शिक्षा का ध्येय है मनुष्य का विकास। (स्वामी विवेकानंद जी)
- शिक्षा किसे कहते हैँ? क्या वह पठन-मात्र नहीँ। क्या वह नाना प्रकार का ज्ञानार्जन है? नहीँ, यह भी नहीँ। जिस संयम के द्वारा इच्छा-शक्ति का प्रवाह और विकास वश मेँ लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- जो शिक्षा साधारण व्यक्ति को जीवनसंग्राम मेँ समर्थ नहीँ बना सकती, जो मनुष्य मेँ चरित्र- बल, पर-हित भावना तथा सिँह के समान साहस नहीँ ला सकती, जिस शिक्षा के द्वारा जीवन मेँ अपनेँ पैरोँ पर खड़ा हूआ जाता है, वही शिक्षा है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- “मैँ धर्म को शिक्षा का अन्तरतम अंग समझता हूँ” ध्यान रखिये कि धर्म के विषय मेँ मैँ अपना अथवा किसी दूसरे की राय की बात नहीँ कहता। (स्वामी विवेकानंद जी)
- औरोँ से उत्तम बातेँ सीखकर उन्नत बनो। जो सीखना नहीँ चाहता, वह तो पहले ही मर चुका है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- डरो मत कितनी बार असफलता मिलेगी, यह न सोचो। चिन्ता न करो। काल अनंत है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- धैर्य के साथ लगे रहो। अब तक हम लोगोँ नेँ बड़ा ही अद्भुत कार्य किया है। वीरोँ, बढ़े चलो, निश्चित हम विजयी होँगे। (स्वामी विवेकानंद जी)
- साहसी होकर काम करो। धीरज और स्थिरता से काम करना- यही एक मार्ग है। आगे बढ़ो और याद रखो धीरज, साहस, पवित्रता और अनवरत कर्म।…. जब तक तुम पवित्र होकर अपनेँ उद्देश्य पर डटे रहोगे, तब तक तुम कभी निष्फल नहीँ होओगे।(स्वामी विवेकानंद जी)
- वीरता से आगे बढ़ो। एक दिन या एक साल मेँ सिद्दि की आशा न रखो। उच्चतम आदर्श पर डटे रहो। (स्वामी विवेकानंद जी)
- हर एक काम मेँ सफलता प्राप्त करनेँ से पहले सैकड़ोँ कठिनाईयोँ का सामना करना पड़ता है। जो उद्यम करते रहेँगे, वे आज या कल सफलता को देखेँगे। (स्वामी विवेकानंद जी)
- जिस पेड़ मेँ फल एवं छाया हो, उसी का आश्रय लेना चाहिये कदाचित फल न भी मिले, फिर भी उसकी छाया से तो कोई भी वंचित नहीँ रह सकता। अत: मूल बात यह है कि महान कार्य को इसी भावना से प्रारम्भ करना चाहिये। (स्वामी विवेकानंद जी)
- औरोँ से उत्तम बातेँ सीखकर उन्नत बनो। जो सीखना नहीँ चाहता, वह तो पहले ही मर चुका है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- धैर्यहीन व्यक्ति कभी भी सिध्द नहीँ हो सकता। (स्वामी विवेकानंद जी)
- मैनेँ अपने एक विशिष्ट विचार के लिये सारा जीवन उत्सर्ग किया है। भगवान मेरी सहायता करेगा, मैँ और किसी की सहायता नहीँ चाहता। सफलता प्राप्त करनेँ का यही एकमात्र रहस्य है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- अनन्त धैर्य, अनंत पवित्रता तथा अनंत अध्यवसाय-सत्कार्य मेँ सफलता के रहस्य हैँ। (स्वामी विवेकानंद जी)
- ये दुनिया कायरोँ के लिये नहीँ है। पलायन की चेष्टा मत करो। सफलता अथवा असफलता की चिन्ता मत करो। पूर्ण निष्काम संकल्प मेँ अपनेँ को लय कर दो और कर्तव्य करते चलो। समझ लो कि सिध्दि पानेँ के लिये जन्मी बुध्दि अपने आपको द्रिढ़संकल्प मेँ लय करके सतत कर्मरत रहती है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- प्रत्येक सफल मनुष्य के स्वभाव मेँ कहीँ न कहीँ विशाल सच्चरित्रता और सत्यनिष्ठा छिपी रहती है और उसी के कारण उसे जीवन मेँ इतनी सफलता मिलती है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- साहस न छोड़ो, यदि शुध्द अम्रित अप्राप्य हो तो कोई कारण नहीँ कि हम विश खा लेँ। (स्वामी विवेकानंद जी)
- आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरत मेँ परिणत करनेँ के लिये सदा प्रस्तुत रहना। इन तीनोँ के रहनेँ पर कोई भी तुम्हे अपनेँ मार्ग से विचलित नहीँ कर सकता। (स्वामी विवेकानंद जी)
- जब तुम कोई कर्म करो, तब अन्य किसी बात का विचार ही मत करो। उसे एक उपासना, बड़ी से बड़ी उपासना के रूप के रूप मेँ करो और उस समय उसमेँ अपना सारा तन-मन लगा दो। (स्वामी विवेकानंद जी)
- यदि तुम किसी मनुष्य की सहायता करना चाहते हो, तो इस बात की कभी चिन्ता न करो कि उसका व्यवहार तुम्हारे प्रति कैसा होना चाहिये। यदि तुम एक श्रेष्ठ एवं उत्तम कार्य करना चाहते हो, तो यह सोचनेँ का कष्ट मत करो कि उसका फल क्या होगा? (स्वामी विवेकानंद जी)
- प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपना आदर्श लेकर उसे चरितार्थ करनेँ का प्रयत्न करे। दूसरोँ के ऐसे आदर्शोँ को लेकर चलनेँ की अपेक्षा, जिनको वह पुरा ही नहीँ कर सकता, अपने ही आदर्श का अनुसरण करना सफलता का अधिक निश्चित मार्ग है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- भविष्य मेँ क्या होगा, इसी चिन्ता मेँ जो सर्वदा रहता है, उससे कोई कार्य नहीँ हो सकता। इसलिये जिस बात को तु सत्य समझता है, उसे अभी कर डाल; भविष्य मेँ क्या होगा, क्या नहीँ होगा इसकी चिन्ता करनेँ की क्या आवश्यकता? (स्वामी विवेकानंद जी)
- जो जिस समय का कर्तव्य है, उसका पालन करना सबसे श्रेष्ठ मार्ग है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- जिस समय जिस काम के लिये प्रतिज्ञा करो, ठीक उसी समय उसे करना चाहिये, नहीँ तो लोगोँ का विश्वास उठ जाता है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- शक्ति क्या कोई दूसरा देता है? वह तेरे भीतर ही मौजुद है। समय आनेँ पर वह स्वयं ही प्रकट होगी। तू काम मेँ लग जा, फिर देखना इतनी शक्ति आयेगी कि तू सँभाल न सकेगा। (स्वामी विवेकानंद जी)
- जो कुछ भी हमारा कर्तव्य है उसे करते रहेँ. अपना कन्धा सदैव काम से भिड़ाये रखेँ। तभी अवश्य हमेँ प्रकाश की उपलब्धि होगी। (स्वामी विवेकानंद जी)
- तुम लोगोँ से जितना हो सके, करो। जब नदी मेँ कुछ पानी नही रहेगा, तभी पार होँगे, ऐसा सोचकर बैठे मत रहो। (स्वामी विवेकानंद जी)
- जो यह समझते हैँ कि कार्यक्षेत्र मेँ उतरनेँ पर अवश्य सफलता मिलेगी, वे ही कार्य संपादन कर सकते हैँ। (स्वामी विवेकानंद जी)
- अत्यन्त निम्नतम कर्मोँ को भी तिरस्कार की नजरोँ से नहीँ देखना चाहिये। (स्वामी विवेकानंद जी)
- हमारा पहला कर्तव्य यह है कि अपनेँ प्रति घ्रिणा न करेँ क्योँकि आगे बढ़नेँ के लिये यह आवश्यक है कि पहले हम स्वयं मेँ विश्वास रखेँ और फिर ईश्वर मेँ। जिसे स्वयं पर विश्वास नहीँ उसे स्वयं पर विश्वास नहीँ हो सकता* (स्वामी विवेकानंद जी)
- आत्मविश्वास का आदर्श ही हमारी सबसे अधिक सहायता कर सकता है। यदि इस आत्मविश्वास का और भी विशाल रूप से प्रचार होता है और यह कार्यरूप मेँ परिणत हो जाता, तो मेरा द्रिढ़विश्वास है कि जगत् मेँ जितना दुख और अशुभ है, उसका अधिकांश गायब हो जाता। (स्वामी विवेकानंद जी)
- मनुष्य कितनी ही अवनति की अवस्था मेँ क्योँ न पहूँच जाये, एक समय ऐसा अवश्य आता है, जब वह उससे बेहद आर्त होकर ऊर्ध्वगामी मोड़ लेता है और अपने मेँ विश्वास करना सीखता है। किन्तु हम लोगोँ को इसे शुरू से ही जान लेना अच्छा है। हम आत्मविश्वास सीखनेँ के लिये इतनेँ कटु अनुभव क्योँ प्राप्त करेँ? (स्वामी विवेकानंद जी)
- युवकोँ, अपनेँ रक्त मेँ उत्साह भरकर जागो। मत सोचो कि तुम गरीब हो, मत सोचो कि तुम्हारे मित्र नहीँ हैँ। अरे, क्या कभी तुमनेँ देखा है कि रूपया मनुष्य का निर्माण करता है? नहीँ, मनुष्य ही सदा रूपये का निर्माण करता है। यह संपूर्ण संसार मनुष्य की शक्ति से, उत्साह की शक्ति से, विश्वास की शक्ति से निर्मित हुआ है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- जो व्यक्ति अपनेँ प्रति घ्रिणा करनेँ लगा है, उसके पतन का द्वार खुल चुका है, और यही बात राष्ट्र के संबंध मेँ भी सत्य है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- श्रध्दा श्रध्दा! अपने आप पर श्रध्दा, परमात्मा मेँ श्रध्दा- यही महानता का एकमात्र रहस्य है यदि पुराणोँ मेँ कहे गये तैँतीस करोड़ देवताओँ के ऊपर और विदेशियोँ नेँ बीच बीच मेँ जिन देवताओँ को तुम्हारे बीच घुसा दिया है उन सब पर भी, यदि तूम्हारी श्रध्दा हो, और अपनेँ आप पर श्रध्दा न हो, तो तुम कदापि मोक्ष के अधिकारी नहीँ हो सकते। अपनेँ आप पर श्रध्दा करना सीखो! इसी आत्मश्रध्दा के बल से अपने पैरोँ पर खड़े होओ, और शक्तिशाली बनो। इस समय हमेँ इसी की आवश्यकता है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- अपनेँ पैरोँ आप खड़े हो जाओ, देर न करो, क्योँकि जीवन क्षणस्थायी है।… अपनी जाति, देश राष्ट्र और समग्र मानव समाज के कल्याण के लिये आत्मोत्सर्ग करना सीखो। (स्वामी विवेकानंद जी)
- मेरे वीरह्रदय युवकोँ, यह विश्वास रखो कि अनेक महान् कार्य करनेँ के लिये तुम सबका जन्म हुआ है। कुत्तोँ के भौँकने से न डरो, नहीँ, स्वर्ग के वज्र से भी न डरो। उठ खड़े हो जाओ। और कार्य करते चलो। (स्वामी विवेकानंद जी)
- एकमात्र इस श्रध्दा के भेद से ही मनुष्य मनुष्य मेँ अंतर पाया जाता है? इसका और दूसरा कारण नहीँ। यह श्रध्दा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दुसरे को कमजोर और छोटा बनाती है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- मानव जाति के समग्र इतिहास मे सभी महान स्त्री पुरूषोँ मेँ यदि कोई महान प्रेरणा सबसे अधिक सशक्त रही है तो वह है यही आत्मविश्वास से इस ज्ञान के साथ पैदा हुए थे कि महान बनेँगे और वे महान् बने भी। (स्वामी विवेकानंद जी)
विचारोँ की शक्ति
- एक विचार लो, उसी विचार को अपना जीवन बनाओ, उसी का चिन्तन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसी मेँ जीवन बिताओ। तुम्हारा मस्तिष्क, स्नायु, शरीर के सभी अंग उसी के विचार से पुर्ण रहेँ। दुसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिध्द होनेँ का उपाय है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- ‘मैँ हीन हूँ’ ,
‘मैँ दीन हूँ’ ऐसा कहते-कहते मनुष्य वैसा ही हो जाता है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- याद रखो कि जिस प्रकार तुम्हारे असत्-विचार और असत् कार्य शेरोँ की तरह तूम पर कुद पड़नेँ की ताक मेँ हैँ, उसी प्रकार तुम्हारे सत् विचार और सत्-कार्य भी हजारोँ देवताओँ की शक्ति लेकर सर्वदा तुम्हारी रक्षा के लिये तैयार हैँ। (स्वामी विवेकानंद जी)
- हम शुभ और अशुभ विचारोँ के उत्तराधिकारी हैँ। यदि हम अपनेँ को निर्मल बना लेँ और शुभ विचारोँ का निमित्त बना लेँ, तो ये हममेँ प्रवेश करेँगे। पवित्रात्मा व्यक्ति अशुभ विचारोँ को ग्रहण नहीँ कर सकता। अशुभ विचारोँ को पापी जनोँ के यहाँ सर्वोत्तम आश्रय मिलता है। वे बीजाणुओँ जैसे हैँ, जो उपर्युक्त क्षेत्र मिलनेँ पर ही अंकुरित होते और पनपते हैँ। (स्वामी विवेकानंद जी)
- कार्य अवश्य अच्छा है, पर वह भी तो विचार या चिन्तन से उत्पन्न होता है। शरीर के माध्यम से शक्ति की जो छोटी छोटी अभिव्यक्तियाँ होती हैँ, उन्हीँ को कार्य कहते हैँ। बिना विचार या चिँतन के कोई कार्य नहीँ हो सकता। अत: मस्तिष्क को ऊँचे ऊँचे विचारोँ, ऊँचे ऊँचे आदर्शोँ से भर लो, और उनको दिन-रात मन के सम्मुख रखो। ऐसा होनेँ पर इन्हीँ विचारोँ से बड़े बड़े कार्य होँगे। (स्वामी विवेकानंद जी)
- शरीर अपनेँ पीछे निहित विचारोँ द्वारा निर्मित होता है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- विचार ही हमारी कार्य प्रव्रिति का नियामक है। मन को सर्वोच्च विचारोँ से भर लो. दिन पर दिन यही सब भाव सुनते रहो, मास पर मास इसी का चिंतन करो। पहले पहल सफलता न भी मिले पर कोई हानि नहीँ, यह असफलता तो बिल्कुल स्वाभाविक है। यह मानव जीवन का सौँदर्य है। इन असफलताओँ के बिना जीवन क्या होता? यदि जीवन मेँ इस असफलता को जय करने की चेष्टा न रहती, तो जीवन धारण करने का कोई प्रयोजन ही न रह जाता। उसके न रहनेँ पर जीवन का कवित्व कहाँ रहता? (स्वामी विवेकानंद जी)
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