बलौदा के राजमार्ग पर एक पेड़ के नीचे एक नव युवक बैठा है, वह बहुत ही फूट-फूटकर रो रहा है, उसके आँखों से आंसुओं का झरना लगातार झर रहा है. कोई भी धीरज नहीं देता और रास्ता नहीं दिखाता उसे.
अचानक उसकी अंतर्मन से आवाज आती है और वह उठ खड़ा होता है, आंसू पोंछकर सोंचता है- “किसने बनाई है छुआ- छूत की इस व्यवस्था को? किसने बनाया है किसी को नीच और किसी को ऊंच? क्या भगवान ने? हरगिज नहीं, वह ऐसा नहीं करता. वह तो सबको समान रूप से जन्म देता है, यह बुराई तो मनुष्य ने पैदा की है और मैं इसे मिटाकर ही दम लूँगा.”
मन में बार-बार अपने इसी निश्चय को दोहराता हुआ वह युवक मुम्बई लौट आता है, फिर वह जो कुछ भी अपने देश के लिए छुआ-छूत को लेकर करता है, उसके कारण आज सारा देश उन्हें बाबा साहब के नाम से स्मरण करता है.
मध्यप्रदेश के महू नगर में रामजी नाम के एक सूबेदार थे, वे महार जाति के थे. 14 अप्रैल 1891 को उनके घर में चौदहवीं संतान ने जन्म लिया. उनकी माता भीमाबाई 5 वर्ष तक ही उन्हें पालक्रर स्वर्ग सिधार गईं, उसके बाद उनकी चाची मीराबाई ने उनका पालन पोषण किया, वे बालक को प्यार से ‘भीवा’ कहकर बुलाया करतीं थीं.. आगे चलकर यही बालक ‘भीमराव रामजी अम्बेडकर’ कहलाये.
अम्बेडकर साहब जब सरकारी स्कुल में भर्ती हुए तो उन्हें सभी लड़कों से दूर रखा जाता था, अध्यापक भी उनकी अभ्यास-पुस्तिका तक नहीं छूते थे. वे संस्कृत पढ़ना चाहते थे किन्तु संस्कृत के अध्यापक ने उन्हें पढाना स्वीकार नहीं किया, विवश होकर उन्होंने फारसी की शिक्षा हासिल की. विद्यालय में उन्हें दिन भर प्यासा रहना पड़ता था, क्योंकि उन्हें पानी के बर्तनों को छूने की/हाथ लगाने के अनुमति नहीं थी.
सन 1905 में रामबाई नाम की कन्या से भीमराव की शादी हो गई, शादी के बाद भीमराव अपने पिता के साथ मुम्बई चले गए. वहाँ वे एलफिन्स्टन स्कूल में भर्ती हुए. एक अच्छी बात कि इस स्कूल में छुआ-छूत की कुप्रथा नही थी.
दो वर्ष बाद ही भीमराव ने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली यह महार जाति के लिए बहुत ही गर्व की बात थी. घर में खूब खुशियाँ मनाईं गई. भीमराव एलफिन्स्टन कॉलेज में पढ़ने लगे. बडौदा के महाराज सयाजीराव गायकवाड ने प्रसन्न होकर उन्हें 25 रूपये छात्रवृत्ति देना आरम्भ कर दिया. बी.ए. उत्तीर्ण होने पर महाराज ने उन्हें बडौदा में अपने दरबार में नौकरी दे दी. लेकिन दुर्भाग्य से इसी वर्ष उनके पिता का स्वर्गवास हो गया..
महाराज के दरबार में भी भीमराव से हिंदू कट्टर घृणा करते थे, यहाँ तक कि चपरासी भी उन्हें फाईलें फेंककर देते थे. तंग आकर भीमराव ने नौकरी ही छोड़ दी. उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए वे कोलंबिया चले गए, अपनी जाति के वे पहले विद्यार्थी थे जिन्हें विदेश जाने का अवसर मिला.
कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ते समय उनको अनेक अनुभव हुए, वहाँ उन्हें सबका प्यार और समानता का व्यव्हार मिला. सन 1916 में वे कोलंबिया से लन्दन पहुँचे. वहाँ एक वर्ष ही रहकर वे फिर मुम्बई लौट आये. महाराज गायकवाड ने उनको बडौदा बुला लिया और सेना में सचिव पद पर नियुक्त कर दिया, लेकिन वहाँ पर भी उन्हें घृणा का शिकार होना पड़ा, होटलों तक में उन्हें रहने का स्थान न मिला. इस व्यवहार से उनका ह्रदय टूट-सा गया, उन्होंने यह नौकरी भी छोड़ दी.
जब वे विदेश में थे तो उन्होंने दो किताबें लिखीं थीं, धीरे-धीरे उनकी विद्वता की धाक जमने लगी. उन्हें मुंबई के कॉलेज में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त कर लिया गया लेकिन यहाँ पर भी एक झंझट थी, धर्म के कट्टर लोग उनसे बहुत घृणा करते थे, किसी प्रकार से भीमराव ने दो वर्ष निकाले और अंत में यहाँ भी उन्हें त्याग-पत्र देना पड़ा.. अंत में उन्होंने छुआ-छूत की बुराई से लड़ने के लिए ‘मुकनायक’ नामक साप्ताहिक पत्रिका निकलना आरम्भ कर दिया परन्तु धन की कमी के चलते उन्हें कुछ समय बाद ही उसे बंद करना पड़ा. भीमराव पढ़ने के लिए फिर से लन्दन चले गए. वहाँ तीन वर्ष रहकर उन्होंने अर्थशास्त्र में डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की.
सन 1923 में वे मुम्बई लौट आये और उन्होंने वकालत आरम्भ कर दी. एक वर्ष बाद कुछ मित्रों की सहायता से उन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की. तथाकथित अछूतों की समस्या हल करना इस सभा का मुख्य उद्देश्य था. उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ नामक समाचार पत्र भी निकाला. इसी वर्ष वे मुम्बई विधानसभा के सदस्य बन गए. 27 मई 1935 को बाबा साहब की पत्नी रामबाई का देहांत हो गया वे बहुत ही दुखे हुए..
डॉ. अम्बेडकर समाज में तथाकथित अछूतों को समानता का अधिकार दिलाना चाहते थे. वे उनकी आर्थिक हालत सुधारने के लिए संकल्प ले चुके थे, इतिहास की सच्ची जानकारी देने के लिए उन्होंने ‘ शुद्र कौन थे?’ नामक पुस्तक लिखी, जो बहुत ही लोकप्रिय हुई. भारत के वाइसराय ने उनकी योग्यता से प्रभावित होकर उन्हें अपने सचिव मंडल का सदस्य बनाया.
15 अगस्त 1947 में भारत के स्वतंत्र होने पर वे संविधान-सभा के सदस्य चुने गए. संविधान का प्रारूप उन्हीं की अध्यक्षता में तैयार हुआ. उन्होंने तथाकथित अछूतों को समानता का अधिकार दिलाया. संविधान निर्माण में बाबा साहब ने अभूतपूर्व परिश्रम किया.
15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत की प्रथम सरकार बनी, डॉ. अम्बेडकर को इस सरकार में कानून मंत्री का पद सौंपा गया था, वे भारत के पुराने कानूनों में कई प्रकार से सुधार लाना चाहते थे किन्तु प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से उनका मतभेद हो गया इसलिए सन 1951 में उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया.
सरकार से अलग होते ही वे पूरी शक्ति से समाज सेवा में जुट गए, लोग उन्हें देवता की तरह पूजने लगे, वे जहाँ भी जाते थे, ‘जय भीम’ के नारों से सारा आकाश गूँज उठता था. उन्होंने सन 1955 में भारतीय बौद्ध महासभा की स्थापना भी कर डाली और बौद्ध धर्म स्वीकार लिया. इस घटना से हिंदू समाज में बड़ी खलबली-सी मच गई. दुर्भाग्य से 6 दिसम्बर 1956 को अचानक लाखों पीड़ितों को छोड़कर डॉ. अम्बेडकर स्वर्गवासी बन गए.
हिन्दू समाज में डॉ. अम्बेडकर को ‘बाबा साहब’ कहकर सम्मान दिया जाता है, वे देश के पिछड़े और दलित समाज के प्राण थे, बचपन से ही वे कठिन परिश्रमी थे. नित्य 18 घंटे पढ़ना उनके लिए सहज बात थी. कठिनाइयाँ उनका मार्ग कभी नहीं रोक पातीं थीं, वे जो भी सोंचते थे उसे करके ही रहते थे. उनका भाषण बहुत ही प्रभावशाली रहता था. तर्क करने की उनमे अनोखी शक्ति थी, वे किसी भी धर्म के विरोधी नहीं थे. उनकी लड़ाई तो उन बुराइयों से थीं, जिन्हें मनुष्यों ने धर्म में उत्पन्न कर दिया है.
बाबा अम्बेडकर जिन्होंने छुआ-छूत के पाप को नष्ट करने का प्रयास किया, उनके प्रयास से सभी कानूनों को समानता का अधिकार मिला, आज सभी बच्चे साथ-साथ बैठकर पढ़ते हैं, खाते-पीते, और खेलते-कुदते हैं. हजारों वर्षों के भारतीय इतिहास की यह बहुत बड़ी घटना है. डॉ. अम्बेडकर साहब ने देश को छुआ-छूत के पाप से छुटकारा दिलाया और आने वाली सभी पीढ़ियाँ बाबा साहब के महान कार्यों को स्मरण कर गौरव का अनुभव करती रहेंगी..
धन्यवाद!
—–जय हिंद—–