स्वामी विवेकानन्द सभी को एकसमान दृष्टि से देखते थे, उनका यही नजरिया उन्हें विशिष्ट बनाता था… सभी के प्रति समान दृष्टि वे खुद भी रखते थे और यह चाहते थे कि उनके गुरू भी सभी के साथ समान दृष्टि रखें…वे मानते थे कि श्री रामकृष्ण देव के साथ उन्होंने बरसों अध्ययन किया है और गुरू की सेवा की है, इसलिए गुरू का ध्यान उनकी ओर विशेष तौर पर जाता था… गुरु का विशेष प्रेम पाने का एक कारण स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि भी थी.. स्वामी विवेकानन्द किसी भी काम को आत्मविश्वास से पूरा करते थे, उनका स्पष्ट मत था कि “तुम जो कुछ सोचोगे, वही हो जाओगे.. यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे तो तुम दुर्बल हो जाओगे… बलवान सोचोगे तो बलवान बन जाओगे..”
वे किसी भी बात को आँख मूंदकर नहीं मानते थे, वे स्वयं चीजों को देखते, पड़ताल करते और फिर कोई भी बात स्वीकार करते… एक दिन श्री रामकृष्ण प्रवचन दे रहे थे.. उन्होंने कहा कि चातक जिस प्रकार अपनी प्यास बुझाने के लिए बादलों की ओर ही ताकता रहता है और उसी पर पूरी तरह निर्भर रहता है, उसी प्रकार भक्त भी अपनी ह्रदय की प्यास और सब प्रकार के भावों की पूर्ति के लिए ईश्वर पर निर्भर रहते हैं…
स्वामी विवेकानन्द उस समय वहां बैठे हुए थे. उन्होंने सबके सामने अपने गुरु की बात पर टिप्पणी की और कहा- “गुरुदेव, ऐसा कहा जाता है कि चातक पक्षी भी वर्षा के जल को छोड़कर और कोई जल नहीं पीता लेकिन यह बात सच नहीं है… चातक पक्षी भी अन्य पक्षियों की तरह ही नदी, तालाब एवं जलाशयों से जल पीकर अपनी प्यास बुझाता है.. मैंने चातक को इस तरह जल पीते देखा है…”
इस पर श्री रामकृष्ण देव ने कहा: “नरेन्द्र, तुमने मेरी वर्षों की धारणा को मिथ्या में बदल दिया, अब मुझे इसमें कोई संदेह नही है…”
स्वामी विवेकानन्द अपनी हाजिर जवाबी और निडरता के कारण भी न केवल अपने गुरु के प्रिय रहे बल्कि सभी लोगों के भी प्रिय रहे.. एक दिन भजन करने के पहले स्वामी विवेकानन्द अपने तानपूरे का तार बाँध रहे थे इतने में गुरुदेव अधीर हो गये और कहने लगे कि ऐसा लगता है कि नरेन्द्र आज तार बांधेगा और किसी अन्य दिन गाना गायेगा…
अभी तो ये तानपूरे का तार बाँध रहा है, फिर टंग-टंग की आवाज करेगा, इसके बाद ताना-नाना तेरु नुमा करेगा.. स्वामी विवेकानन्द को गुरु की बातें विचलित कर गयी और उन्होंने बिना किसी भूमिका के कहा कि संगीत नहीं समझने के कारण ऐसा लगता है… इस पर गुरुदेव हंस पड़े और कहने लगे कि अपनी हाजिर जवाबी और निडरता से इसने हम सभी की बातों को मजाक में उड़ा दिया… स्वामी विवेकानन्द ने संगीत कला में किसी पंडित की तरह ही शिक्षा पायी थी और वो अपने वाद्य यन्त्र को जब तक सही सुर में नहीं बांध लेते तब तक गाना शुरू नहीं करते – भले ही इसमें कितनी भी देर क्यों न हो जाए ….
ऐसा नहीं है कि स्वामी विवेकानन्द ने हमेशा ही वाद्य यंत्रों के साथ गायन किया हो… अपने पिता श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु के बाद स्वामी विवेकानन्द कुछ क्षुब्ध रहने लगे थे… ऐसे में गुरु श्री रामकृष्ण ने उनसे एक दिन गाने की बात कही… अपने गुरु की बात पर पहले तो स्वामी विवेकानन्द ने ना-नकुर की और कहा कि उसे और भी काम हैं लेकिन फिर कुछ सोचकर उन्होंने अपने गुरु की मंशा पूरी की… भजन सुनाये और वो भी बिना किसी वाद्ययंत्र के… बाद में तानपूरा कोई लेकर आया तब भी स्वामी जी की भजन जारी थी… स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु से यह शिक्षा पाई थी कि साधारण अवस्था में उनका व्यवहार फूलों सा कोमल और किन्हीं विशेष स्थितियों में वज्र जैसा कठोर हो जाता था लेकिन बाहर से भले ही वह व्यवहार कितना भी कठोर और कोमल हो, भीतर सदा ही स्नेह भाव रहता था… यही भाव स्वामी विवेकानन्द ने अपने सभी शिष्यों, मित्रों और परिजनों के साथ रखा और उसी में उनके जीवन की शिक्षा का मन्त्र भी है…
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था: “साधारणतः इन्सान अपने दोषों और भूलों को पड़ोसियों पर लादना चाहता है, यह न जमा तो, उन सबको ईश्वर को मथ्थे मढना चाहता है; और इसमें भी सफल न हुआ तो फिर ‘भाग्य’ नामक एक भुत की कल्पना करता है और उसी को उन सब के लिए उत्तरदायी बनाकर निश्चिन्त हो जाता है… पर यह प्रश्न है कि ‘भाग्य’ नामक यह वस्तु है क्या और रहती कहाँ है? हम जो कुछ बोते हैं बस वही पाते हैं… हम स्वयं अपने भाग्य के विधाता हैं… हमारा भाग्य यदि खोटा हो, तो भी कोई दूसरा दोषी नहीं; और यदि हमारे भाग्य अच्छे हों तो भी कोई दूसरा प्रशंसा का पात्र नहीं? वायु सर्वदा बह रही है… जिन-जिन जहाजों के पाल खुले रहते हैं, वायु उन्हीं का साथ देती है, और वे आगे बढ़ जाते हैं… पर जिनके पाल नहीं खुले रहते, उन पर वायु नहीं लगती तो क्या वह वायु का दोष है?
सवाल केवल नजरिया बदलने का है… मनुष्य प्रकृति के विरुद्ध युद्ध और संघर्ष करता रहता है… वह अनेक भूलें करता है, कष्ट भोगता है, परन्तु अंत में प्रकृति पर विजय प्राप्त करता है और अपनी मुक्ति प्राप्त कर लेता है.. जब वह मुक्त हो जाता है, तब प्रकृति उसकी दासी बन जाती है… इसलिए अपने हाथों अपना भविष्य गढ़ डालो… सारा भविष्य तुम्हारे सामने पड़ा हुआ है… दुर्भाग्य की बात है कि अधिकांश व्यक्ति इस संसार में बिना किसी आदर्श के ही जीवन के इस अंधकारमय पथ पर भटकते फिरते हैं… जिसका एक निर्दिष्ट आदर्श है, वह यदि एक हजार भूलें करे तो यह निश्चित है कि जिसका कोई भी आदर्श नहीं, वह दस हजार भूलें करेगा… अतएव एक आदर्श रखना अच्छा है…
शिकायतों और झगड़ों से क्या लाभ? उससे हम कुछ अधिक अच्छे तो नहीं बन जायेंगे.. जो अपने भाग्य में पड़ी हुई सामान्य वस्तु के लिए भी बडबडाता है, वह प्रत्येक वस्तु के लिए बडबडायेगा… इसी प्रकार हमेशा बड़बड़ाते रहने से उसका जीवन दुखमय हो जाएगा और सर्वत्र असफ़लता ही उसके हाथ लगेगी; परन्तु जो मनुष्य अपने कर्तव्य को पूर्ण शक्ति से करता रहता है, वह ज्ञान एवं प्रकाश का भोगी होगा और उससे अधिकाधिक ऊंचे कार्य करने के अवसर प्राप्त होंगे.. हम लोग जो कुछ सोचते हैं, जो कुछ कार्य करते हैं वही कुछ समय बाद सूक्ष्म रूप धारण कर लेता है, मानो बीज रूप बन जाता है और वही इस शरीर में अव्यक्त रूप में रहता है और फिर कुछ समय बाद प्रकाशित होकर फल भी देता है… मनुष्य का सारा जीवन इसी प्रकार गढ़ता है… वह अपना अदृष्ट स्वयं ही बनाता है… मनुष्य और किसी भी नियम से बद्ध नहीं… वह अपने ही नियम में अपने ही जाल में अपने आप बंधा है…