प्रेरक प्रसंग 1- सौ का नोट
एक अँधा व्यक्ति रोज शाम को सड़क के किनारे खड़े होकर भीख माँगा करता था। जो थोड़े-बहुत पैसे मिल जाते उन्हीं से अपनी गुजर-बसर किया करता था। एक शाम वहां से एक बहुत बड़े रईस गुजर रहे थे। उन्होंने उस अंधे को देखा और उन्हें अंधे की फटेहाल होने पर बहुत दया आई और उन्होंने सौ रूपये का नोट उसके हाथ में रखते हुए आगे की राह ली।
उस अंधे आदमी ने नोट को टटोलकर देखा और समझा कि किसी आदमी ने उसके साथ ठिठोली भरा मजाक किया है क्योंकि उसने सोचा कि अब तक उसे सिर्फ 5 रूपये तक के ही नोट मिला करते थे जो कि हाथ में पकड़ने पर सौ की नोट की अपेक्षा वह बहुत छोटा लगता था और उसे लगा कि किसी ने सिर्फ कागज़ का टुकड़ा उसके हाथ में थमा दिया है और उसने नोट को खिन्न मन से कागज़ समझकर जमीन पर फेंक दिया।
एक सज्जन पुरुष जो वहीँ खड़े ये दृश्य देख रहे थे, उन्होंने नोट को उठाया और अंधे व्यक्ति को देते हुए कहा- “यह सौ रूपये का नोट है!” तब वह बहुत ही प्रसन्न हुआ और उसने अपनी आवश्यकताएं पूरी कीं।
शिक्षा – ज्ञानचक्षुओं के अभाव में हम सब भी भगवान के अपार दान को देखकर यह समझ नहीं पाते और हमेशा यही कहते रहते हैं कि हमारे पास कुछ नहीं है, हमें कुछ नहीं मिला, हम साधनहीन हैं, पर यदि हमें जो नहीं मिला उन सबकी शिकायत करना छोड़कर, जो मिला है उसकी महत्ता को समझें तो हमें मालूम पड़ेगा कि जो हम सबको मिला है वो कम नहीं अद्भुत है।
प्रेरक प्रसंग 2- मन
सुबह होते ही, एक भिखारी नरेन्द्रसिंह के घर पर भिक्षा मांगने के लिए पहुँच गया। भिखारी ने दरवाजा खटखटाया, नरेन्द्रसिंह बाहर आये पर उनकी जेब में देने के लिए कुछ न निकला। वे कुछ दुखी होकर घर के अंदर गए और एक बर्तन उठाकर भिखारी को दे दिया।
भिखारी के जाने के थोड़ी देर बाद ही वहां नरेन्द्रसिंह की पत्नी आई और बर्तन न पाकर चिल्लाने लगी- “अरे! क्या कर दिया आपने चांदी का बर्तन भिखारी को दे दिया। दौड़ो-दौड़ो और उसे वापिस लेकर आओ।”
नरेन्द्रसिंह दौड़ते हुए गए और भिखारी को रोककर कहा- “भाई मेरी पत्नी ने मुझे जानकारी दी है कि यह गिलास चांदी का है, कृपया इसे सस्ते में मत बेच दीजियेगा। ”
वहीँ पर खड़े नरेन्द्रसिंह के एक मित्र ने उससे पूछा- मित्र! जब आपको पता चल गया था कि ये गिलास चांदी का है तो भी उसे गिलास क्यों ले जाने दिया?”
नरेन्द्रसिंह ने मुस्कुराते हुए कहा- “मन को इस बात का अभ्यस्त बनाने के लिए कि वह बड़ी से बड़ी हानि में भी कभी दुखी और निराश न हो!”
शिक्षा– मन को कभी भी निराश न होने दें, बड़ी से बड़ी हानि में भी प्रसन्न रहें। मन उदास हो गया तो आपके कार्य करने की गति धीमी हो जाएगी। इसलिए मन को हमेशा प्रसन्न रखने का प्रयास करें।
प्रेरक प्रसंग 3- देने का आनंद
स्वामी विवेकानंद के जीवन की यह एक घटना है। भ्रमण करने एवं भाषणों के बाद स्वामी विवेकानन्द अपने निवास स्थान पर आराम करने के लिए लौटे हुए थे। उन दिनों वे अमेरिका में ठहरे हुए थे और वे अपने ही हाथों से भोजन बनाते थे। वे भोजन करने की तैयारी कर ही रहे थे की कुछ बच्चे उनके पास आकर खड़े हो गए। उनके अच्छे व्यव्हार के कारण बहुत बच्चे उनके पास आते थे। वे सभी बच्चे भूखे मालुम पड़ रहे थे। स्वामी जी ने अपना सारा भोजन बच्चों में बाँट दिया। वहीँ पर एक महिला बैठी ये सब देख रही थीं। उसने बड़े ही आश्चर्य से पूछा- “आपने अपनी सारी रोटियां तो इन बच्चों को दे डाली, अब आप क्या खाएंगे?”
स्वामी जी मुस्कुराते हुए बोले- माता! रोटी तो मात्र पेट की ज्वाला शांत करने वाली वस्तु है। यदि इस पेट न सही तो उनके पेट में ही सही। आखिर वे सब भगवान के अंश ही तो हैं। देने का आनंद, पाने के आनंद से बहुत बड़ा है।
शिक्षा– अपने बारे में सोचने से पहले दूसरों के बारे में सोचना ज्यादा आनन्ददायी होता है।