एक बार एक संत, साधारण वेशभुषा मेँ एक नदी के किनारे खड़े होकर नाविक का इंतजार कर
रहे थे। उन्हेँ नदी के उस पार जाना था, पर नाविक यात्रियोँ को लेकर दुसरी
ओर गया हुआ था। इसी समय एक भभूतधारी साधु वहाँ पहूँचा और संत जी
को व्यंग्य से देखता हुआ नदी के पानी पर ऐसा चल पड़ा जैसे पानी स्थल (जमीन) हो।
पानी पर चलना एक अचम्भा की बात है, एक विचित्र अजुबा भी, इसके बावजुद भी
संत जी नेँ उधर ध्यान नहीँ दिया। उचटती-सी नजर डाली और अपनी सोँच ही
मेँ निमग्न हो गये।
की इस विशेष उपलब्धि पर ध्यान ही नहीँ दिया, तो वह भभुतधारी साधु आया लौट आया और
संत जी के पास आकर बोला-” तुम इतनेँ बड़े संत हो, तत्वज्ञान की
बातेँ करते हो। मैँ तो एक साधारण साधु हूँ, पर फिर भी पानी पर चलना मेरे
लिए मामूली बात है। तुम कैसे साधक हो?”
उस संत जी नेँ मुस्कुराकर पूछा-” आपनेँ इस उपलब्धि को प्राप्त करनेँ
मेँ कितना समय लगाया महोदय?”
साधु नेँ गर्व से कहा-” तेरह वर्ष।”
संत नेँ भभुतधारी साधु से हँसते हुए कहा-” फिर तो आपनेँ अपनी जिंदगी के अमुल्य तेरह
वर्ष दो पैसे मेँ गँवा दिए। अभी नाविक आयेगा और वह दो पैसे लेकर मुझे नदी
पार करा देगा।
इतनी तुच्छ बात के लिए इतना समय नष्ट करना मुझे अज्ञानता लगी, इसलिए
मैनेँ इसके लिए प्रयत्न ही नहीँ किया।
भारत माता अज्ञानता, विपन्नता और रोग से ग्रसित है, परतंत्र है। इसके
गौरव को प्रतिष्ठित करना मुझे इन सबसे अधिक आवश्यक लगा, इसलिए मैँ दूसरी
बातोँ को ध्यान ही नहीँ दे सका।”
उस साधु का अहंकार एक पल मेँ नष्ट हो गया। उसनेँ संत जी के सामनेँ हाथ
जोड़ते हुए कहा-” आप सचमुच महान हैँ। आज मेरी समझ मेँ आया कि मैनेँ अपना
जीवन व्यर्थ की सिध्दियोँ मेँ गँवा दिया। जिस शक्ति से मैँ किसी का भला
नहीँ कर सकता, जो मेरे अंदर के मनुष्य को प्रकाशित नहीँ कर सकती, और
शक्ति का होना और न होना एक जैसा है।”
Friends उपलब्धि अपनेँ आप मेँ महत्वपूर्ण नही होती है। महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति
नेँ उसे कैसे प्राप्त किया है और उससे समाज और मानवता को क्या मिला है
ये जरूरी है कि आप क्या कर रहे हैँ लेकिन यह भी जरुरी है कि उससे दूसरोँ
का भी फायदा हो रहा है कि नहीँ।
सफलता का मतलब केवल भौतिक उपलब्धियोँ को प्राप्त कर लेना ही नही है। So friends हमेँशा ऐसा कार्य करनेँ की कोशिश करेँ जिससे स्वयं के अलावा, समाज, देश सबका हित हो सबका भला और कल्याण हो।